Monday, December 01, 2008

डर लगता है

मुझे डर लगता है
कल से फैला है सन्नाटा है हर तरफ़
कोई भी मरा नही है
पता नही मुझे क्यूँ लगता है
अब मेरी बारी है

मुझमे तुझमे क्या फर्क है
खुदा तो सबमे है खून का रंग लाल सबका है
वफ़ा से प्यार सबको है
पर ओ मेरे भाई तू क्यूँ हम सबसे नाराज है
क्यूँ हम सबको डरा रहा है

थपकियाँ माँ की लोरी की तरह होती है
बड़े भाई का गुस्सा भी बाद में हम दोनों को रुलाता था
पापा मुझे पीटने के बाद मुझे आइसक्रीम खिलते थे
पर ओ मेरे भाई तू क्यूँ मुझसे अब तक नाराज है

मुझे अब सन्नाटे से डराते हो
कब गोली इस दिवार से निकल के मेरे सीने में घुस जायेगी
मैं इसी का इंतज़ार करता रहता हूँ
दिल को चीर करके रख दूँ आज मैं और कहूँ तुमसे मैं सच में तुम सब से मुहब्बत करता हूँ
पर मेरे भाई तू इस छोटी सी बात को क्यूँ नहीं समझता है

चल आ मेरे पास फ़ेंक ये बन्दूक जिसकइ गोलियां प्यार नहीं पैदा करती
मेरे भाई फ़ेंक ये नफरत जो गरीब को आमिर नही कर सकती
फ़ेंक ये नकाब जो तुमने चढा रखा है अपने दिल पे
पूछ अपनी माँ से अपने भगवान से क्या सच में तू जो कर रहा है वो ये चाहता है।


सुजीत कुमार (मुंबई की बमबारी और दहशत के दो दिन बाद) ३०.११.२००८ रात के १.३० बजे

2 comments:

Anonymous,  Monday, 26 January, 2009  

Bahut Khub. ....achchha likha hai. All The Best.

vijay kumar sappatti Friday, 07 August, 2009  

amazing poem sir ji

ek ek shabd kuch kah raha hai ... aapki lekhni ko naman


aabhar

vijay

pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com