डर लगता है
मुझे डर लगता है
कल से फैला है सन्नाटा है हर तरफ़
कोई भी मरा नही है
पता नही मुझे क्यूँ लगता है
अब मेरी बारी है
मुझमे तुझमे क्या फर्क है
खुदा तो सबमे है खून का रंग लाल सबका है
वफ़ा से प्यार सबको है
पर ओ मेरे भाई तू क्यूँ हम सबसे नाराज है
क्यूँ हम सबको डरा रहा है
थपकियाँ माँ की लोरी की तरह होती है
बड़े भाई का गुस्सा भी बाद में हम दोनों को रुलाता था
पापा मुझे पीटने के बाद मुझे आइसक्रीम खिलते थे
पर ओ मेरे भाई तू क्यूँ मुझसे अब तक नाराज है
मुझे अब सन्नाटे से डराते हो
कब गोली इस दिवार से निकल के मेरे सीने में घुस जायेगी
मैं इसी का इंतज़ार करता रहता हूँ
दिल को चीर करके रख दूँ आज मैं और कहूँ तुमसे मैं सच में तुम सब से मुहब्बत करता हूँ
पर मेरे भाई तू इस छोटी सी बात को क्यूँ नहीं समझता है
चल आ मेरे पास फ़ेंक ये बन्दूक जिसकइ गोलियां प्यार नहीं पैदा करती
मेरे भाई फ़ेंक ये नफरत जो गरीब को आमिर नही कर सकती
फ़ेंक ये नकाब जो तुमने चढा रखा है अपने दिल पे
पूछ अपनी माँ से अपने भगवान से क्या सच में तू जो कर रहा है वो ये चाहता है।
सुजीत कुमार (मुंबई की बमबारी और दहशत के दो दिन बाद) ३०.११.२००८ रात के १.३० बजे
2 comments:
Bahut Khub. ....achchha likha hai. All The Best.
amazing poem sir ji
ek ek shabd kuch kah raha hai ... aapki lekhni ko naman
aabhar
vijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
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